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लोक नृत्‍य

लोक नृत्‍य - नन्‍दा देवी राजजात

एशिया के समस्‍त पर्वतीय प्रदेश में उत्‍तराखण्‍ड भी एक सुन्‍दर प्रदेश है पर्वत एवं घाटियां, वन तथा मखमली घास के हरे-भरे बुग्‍याल, पक्षी तथा वन्‍य जन्‍तु, ति‍तलियां और फूलों की घाटियां आदि की सम्मिलित छटा एक ऐसे आनन्‍द की अभिसृष्टि करती है जो अन्‍यत्र कहीं भी उपलब्‍ध नहीं है सीढीनुमा खेत, झरनों की कल-कल, मधुर संगीत, सुरमयी बर्फ से घिरे पर्वत श्रृखलाएं आदि प्रकृति के अनुठे तिलिस्‍मों के बीच हिमालय की कठिन चढाई से गुजरते हुए 7300 फुट की ऊँचाई तक पहुंचने वाली संसार में अपने ढंग की अनोखी, धार्मिक, सांस्‍कृतिक यात्रा नन्‍दा देवी राजजात है

नन्‍दा देवी राजजात-हर बारह साल के बाद एशिया की सबसे लम्‍बी एवं सबसे ऊँचाई पर आयोजित होने वाली 280 किलोमीटर की पद यात्रा भी उत्‍तराखण्‍ड के इतिहास और उसके वर्तमान से जोडे रखने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रही है पुराणों के अनुसार नन्‍दा देवी का भगवान शंकर के साथ विवाह नन्‍दाष्‍टमी को हुआ था हिमालय में नन्‍दा शिखर को नन्‍दा ससुराल कहा जाता है मायके से नन्‍दा देवी की उनके ससुराल से विदाई के रूप में यह यात्रा आयोजित की जाती है इस यात्रा की नन्‍दादेवी डोली, देवी-देवताओं की छतोलियां, त्रिशुल और मेढे को ढोल-दमाउं, नगाडे के साथ सजाया जाता है

लोक नृत्‍य - हारूल

हारूल नृत्‍य भारत की सबसे बडी जनजाति (जौनसारी-जनजाति) का पुष्‍तैनी नृत्‍य हैा यह पारम्‍परिक लोक नृत्‍य, कृषि कार्य करते समय, विवाह, शादियों तथा मेले-उत्‍सव में महिला-पुरूषों द्वारा सामूहिक नृत्‍य के साथ अर्ध-चंद्राकार वृत्‍त में, विभिन्‍न मुद्राओं के साथ सुन्‍दर पद चाल संचालन तथा आकर्षक व भडकिले वस्‍त्रों तथा आभूषणों एवं कृषि उपकरणों के साथ किया जाता है इस नृत्‍य में नृत्‍य की मुद्राएं अदभुत हैं हारूल नृत्‍य जनजाति क्षेत्र को पाण्‍डवों से विरासत में मिला है यह नृत्‍य पाण्‍डव संस्‍कृति का सन्‍देश व्‍यक्‍त करता है यह नृत्‍य यहां के लोगों का पैतृक नृत्‍य है इस नृत्‍य को यहाँ के लोग गर्व व स्‍वाभिमान का प्रतीक मानते हैं

लोक नृत्‍य - नन्‍दा-सुनन्‍दा

माँ नन्‍दा सुनन्‍दा के नाम से नन्‍दादेवी मेला सितम्‍बर महीने में पूरे उत्‍तराखण्‍ड में खास कर अल्‍मोडा, नैनीताल, कोट भामरी गरूड व टिहरी में बडे उत्‍साह से मनाया जाता है माँ नन्‍दा सुन्‍नदा दो बहिने थी, नन्‍दा को पार्वती का अवतार माना जाता है उत्‍तराखण्‍ड के घर-घर में उसकी पूजा अर्चना की जाती है इसी परम्‍परा को लोकगीत व लोकनृत्‍य के माध्‍यम से प्रस्‍तुत करते है

लोक नृत्‍य - बसन्‍त नृत्‍य

बसन्‍त ऋतु के आगमन पर जब चारों ओर फूल खिले रहते हैं, तब गांव की महिलायें घर के आंगन में बसन्‍ती गीत गाती है, तथा नृत्‍य करती है

लोक नृत्‍य - छपेली

पर्वतीय अंचल का जीवन इतना कठोर व श्रम संध्‍यया है कि यदा-कदा लगने वाले मेलों-त्‍यौहारों के माध्‍यम से ही वे अपने तन व मन की थकान को मिटा पाते हैं उन्‍हीं मेलों त्‍यौहारों में गाये जाने वाले लोकनृत्‍य व लोकगीतों की एक विद्या ‘’छपेली’’ है ‘’छपेली’’ उमंग और उत्‍साह से भरा हमारे पर्वतीय अंचल का एक लोकगीत/लोकनृत्‍य है इसमें प्रमुख गायक हाथ में ‘’हुडका’’ (वाद्ययंत्र) लेकर हुडके की ताल में हुडके की थाप के साथ “जोड” गाता है “जोड” के साथ ही ऐसा गीत प्रस्‍तुत करता है जिसमें श्रृंगार रस के सभी रंगों को देखा व सुना जा सकता है

लोक नृत्‍य - नाटी

जौनसारी जनजाति में प्रसिद्ध लोक नृत्‍य, महिला एवं पुरूषों द्वारा प्रतिस्‍पर्धात्‍मक प्रस्‍तुति के साथ किया जाता है, इस नृत्‍य में महिला एवं पुरूषों द्वारा एक दूसरे के प्रति प्रेम का इजहार किया जाता है

लोक नृत्‍य - घस्‍यारी नृत्‍य

पर्वतीय अंचलों में महिलाओं की सहभागिता सर्वाधिक है प्रात: काल उठने से रात्रि सोने तक अधिकतम कार्य महिलाओं द्वारा ही किया जाता है पुरूष रोजी-रोटी की तलाश में प्रदेश में रहते हैं इसी के कारण यहां की महिलाओं का साक्षरता प्रतिशत पुरूषों की अपेक्षा कम है घस्‍यारी नृत्‍य में नायिका (पत्‍नी) अपने पति का पत्र पाकर उस पत्र को मन की आँखों से पढने की कोशिश करती है उसको यह पता है कि पत्र में क्‍या लिखा होगा, लेकिन उस शब्‍दों को वह अपने कानों से सुनना चाहती है इसी प्रकार के भाव पर घस्‍यारी नृत्‍य किया जाता है

लोक नृत्‍य - हुडका-छुडका नृत्‍य

यह नृत्‍य इस संस्‍था द्वारा स्‍वयं तैयार किया गया है इस नृत्‍य में पुरूषों के हाथ में हुडक्‍का तथा घस्‍यारी के हाथ में दाथिया होती है जिस पर घुंघरू (छुडके) लगे होते हैं छुडके व हुडके की जुगलबंदी पर इस नृत्‍य को तैयार किया गया है

लोक नृत्‍य - झुमैला नृत्‍य

झुमैलो नृत्‍य बसन्‍त पंचमी से लेकर विषुव संक्रान्ति तक चलते हैं बसन्‍त ऋतु के लौटते ही गढवाल की धरती प्रकृति नैसर्गिक सौन्‍दर्य से खिल उठती है ऐसे सुखद वातावरण में युवतियां जब अपने मायके आती है, तो इस प्रकृति की तरह उल्‍लासित हो उठती है, और अपने बचपन की बातें याद कर अपनी सहेलियों के साथ नृत्‍य करती है

लोक नृत्‍य - पौण नृत्‍य

यह नृत्‍य वृत्‍त कथा रूप में चलता है, पौंणा (बारात के पाहुने) बनकर आने वालों की भावनाओं एवं उल्‍लास का नृत्‍य–रूप प्रस्‍तुत करने में इनके जीवन की कठिनाई, सुख-दुख उल्‍लास आदि का परिचय मिलता है

पौंणा यानि की मेहमान, मेहमान यानि कि भगवान का रूप, ढोल-दमाऊ-भंकारे के साथ पारम्‍परिक वेश-भूषा एवं पांडव नृत्‍य की शैली में मेहमानों के आगमन व उनहें प्रसन्‍न करने के लिये यह नृत्‍य किया जाता है

यह नृत्‍य सीमान्‍त जिले चमोली के नीति-माण क्षेत्र में अधिक प्रचलित है भोटिया जनजाति के लोग इस नृत्‍य को बडे उल्‍लास के साथ प्रस्‍तुत करते हैं

लोक नृत्‍य - चांचरी

यह वस्‍तुत: दानपुर (बागेश्‍वर) क्षेत्र की नृत्‍य शैली है पदक्रम झोडे के समान होता है ऐसा प्रतीत होता है, कि झोडा चाचरी के रूपों में केवल नाम भेद, स्‍थान भेद और क्षेत्र भेद है जैसे झोडा-अल्‍मोडा, सोमेश्‍वर-द्वाराहाट, चांचरी-दानपुर, आदि इसी तरह गढवाली छोपती, तांदी, झुमैला, चौफला, थड्या भी झोडा-चांचरी से समानता रखता है

लोक नृत्‍य - सयना लोक नृत्‍य

सयना लोकनृत्‍य जौनसारियों के प्रेम विषयक श्रृंगारपूर्ण नृत्‍यों में प्रमुख है सभी धार्मिक व सामाजिक त्‍यौहारों पर भडकिले वस्‍त्रभूषण पहने हुए महिलाएं और पुरूष इस नृत्‍य में भाग लेते हैं दीवाली के अवसर पर यह नृत्‍य विशेष उमंग के साथ नाचा जाता है इस अवसर पर गाँव की सभी ‘’ढ्यँदियाँ’’ (दूसरे गांव से ब्‍याही गई लडकियाँ) अपने मायके लौट आती है गाँव में आने पर उन्‍हें बचपन के साथियों से मिलने का अवसर मिलता है पुरानी मधुर स्‍मृतियों में वे खो जाते हैं और मधुर स्‍मृतियाँ मुखरित होकर सयना गीत में फूट पडती है, और उनके कदम स्‍वत: ही उन भावों के साथ नाच करने लगते हैं प्रेमी अथवा मित्र पुरूष अपने गाये गये गीतों की टेक लेकर नई उमंग में भरकर नाच उठते है और तब नृत्‍यगीत में इस तरह खो जाते हैं कि कुछ क्षणों के लिए वे पुन: एक बार एक हो जाते हैं

लोक नृत्‍य - रवाई नृत्‍य

ये नृत्‍य सभी मेले व सामाजिक अवसरों पर किये जाते है ये नृत्‍य गीत भी किसी न किसी कथानक पर आधारित होते है, यह उत्‍तरकाशी जौनसार का प्रचलित नृत्‍य है

लोक नृत्‍य - बग्‍डवाल नृत्‍य

यह नृत्‍य उत्‍तराखण्‍ड के बगुडी नामक गांव के निवासी राजा जीतूसिंह पर आधारित है जिनके अस्‍सी पारिवारिक सदस्‍य एवं सोलह सौ (1600) जवानों की सेना थी जीतू बग्‍ड्वाल एक राजा होने के साथ-साथ एक बांसुरी वादक व लोक नर्तक भी था कहते है उनकी बांसुरी की स्‍वरों पर मुग्‍ध होकर आंछरियों (परियां) उन्‍हें मृत्‍यु लोक से जीवित अपने लोक ले गई थी जीतू बग्‍ड्वाल ने उत्‍तराखण्‍ड में सामूहिक खेती का प्रचलन शुरू किया था ढोल-दमांउ, भंकारे के साथ पूरा गांव खेतों में जाता था जहां पहले यह नृत्‍य किया जाता था, फिर खेतों में कार्य शुरू होता था आज भी उनकी याद में यह बग्‍ड्वाल नृत्‍य किया जाता है

लोक नृत्‍य - दीपक नृत्‍य

दीपक नृत्‍य जौनसारी जनजाति का एक ऐसा नृत्‍य है, जो महिला द्वारा किया जाता है इस नृत्‍य में महिला के सर पर तीन लौटे तथा 12 दीये का चक्र होता है, नृत्‍य करते हुये महिला जमीन से रूमाल उठाने का करतब दिखाती है

लोक नृत्‍य - वीर नृत्‍य

इस नृत्‍य में भगवान शिव के गण जैसे भैरवनाथ, अयादिनाथ, जुगादिनाथ आदि अपने पाश्‍वों पर अवतरित होते है और रौद्र रूप में नृत्‍य करते हैं नृत्‍य करते हुये शिव के गण आलोकिक शक्ति का प्रदर्शन करते हैं इस लोक नृत्‍य का आयोजन भगवान ब्रदीविशाल की भूमि में शिव भक्‍तों द्वारा अपनी मनोकामना पूर्ण होने व क्षेत्र की समृद्धि के लिये समय-समय पर किया जाता है नृत्‍य की शुरूआत ब्रह्मगुरू द्वारा शिव व गणेश जी की स्‍तुति के साथ ही मण्‍डाण की शुद्धि वैदिक मंत्रों के उच्‍चारण के साथ किया जाता है पूजा के लिये नये अनाज की पिसाई, दही, मख्‍खन का भोग तैयार किया जाता है इसके साथ ही पारम्‍परिक वाद्य यंत्रों ढोल, दमाऊँ, हुड्का, भोंकोर, थाली, डौंर बजाकर जागरी द्वारा आलौकिक वातावरण की अग्नि को प्रज्‍वलित किया जाता है इस आलौकिक ध्‍वनि को सुनकर शिव के गण जिन्‍हें वीर के नाम से जाना जाता है अपने पाश्‍वों पर रौद्र रूप में अवतरित होते हैं नृत्‍य में महिलाऐं माँ दुर्गा के पाश्‍वों के रूप में अवतरित होकर नृत्‍य के माध्‍यम से वीरों के लिये भोग की तैयारी करते हैं, तथा भोग लगाती हैं

लोक नृत्‍य - तान्‍दी नृत्‍य

तान्‍दी नृत्‍य उत्‍तराखण्‍ड के जौनपुर क्षेत्र का प्रसिद्ध लोकनृत्‍य है, पारम्‍परिक वाद्य-यंत्रों, ढोल-दमाऊँ, रणसिंगा के साथ यह नृत्‍य किया जाता है

तान्‍दी नृत्‍य अर्थात् एक पंक्ति (तान्‍द) में खडे होकर नाचने का अर्थ बताता है परन्‍तु यह नृत्‍य अर्द्ध वृत्‍ताकार रूप में सम्‍पन्‍न किया जाता है इस नृत्‍य में नर्तकों के हाथ पीछे व आगे अंगुलियों से गुँथे होते हैं नृत्‍य करते समय पैरो की गति विशेष रूप से दर्शनीय होती है पहले नर्तक के बाये पैर से दूसरे नर्तक का दांया पैर संलग्‍न अर्थात मिला होता है नर्तक एक दूसरे पैरों को मिलाकर दो कदम आगे फिर एक कदम पीछे आकर अर्द्धवृत्‍त बनाते हुए नृत्‍य करते चलते हैं यह नृत्‍य कुमाऊँनी छोपती नृत्‍य से भी मिलता है

तान्‍दी के नर्तक कभी अर्द्धवृत्‍त व कभी आमने सामने आकर नृत्‍य करते हैं कभी-कभी नर्तक अपने दोनों पैरों को कैंची की तरह उछालकर भी नृत्‍य करते हैं

लोक नृत्‍य - पाण्‍डव नृत्‍य

पाण्‍डव नृत्‍य को धार्मिक भावना के लोक-नृत्‍यों की श्रेणी में रखा जाता है लोक-नृत्‍य जहां दैवीय प्रभावों से परिपूर्ण है वहीं सामान्‍य जन-जीवन के भी करीब है पाण्‍डव नृत्‍य मंडाण का नृत्‍य है, मंडाण यानि खुले मैदान व गांव का पंचायती चौक आदि में प्रदर्शित किये जाते हैं नृत्‍य स्‍थल पर ढोल-दमांउ, तुरही, रणसिंगा आदि वाद्य यंत्रों के सहित इस नृत्‍य में अग्नि प्रज्‍जवलन के उपरान्‍त देवताओं का आह्वान किया जाता है

पाण्‍डव नृत्‍य यानि पंडो नृत्‍य गढवाल में बहुत लोक प्रिय है खेती के कार्य समाप्‍त होते ही नृत्‍य प्रारम्‍भ हो जाते हैं पाण्‍डवों के जीवन की कहानी इन नृत्‍यों के माध्‍यम से दिखाई जाती है पांडव नृत्‍य में महाभारत के आख्‍यानों को नृत्‍य एवं गीतों के माध्‍यम से प्रस्‍तुत किया जाता है नृत्‍य से पहले पांडव आत्‍माओं को मंडाण में आने हेतु आहूत किया जाता है पांडव नृत्‍य में युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल-सहदेव और द्रोपदी मुख्‍य पात्र होते हैं

लोक नृत्‍य - दुवडी त्‍यौहार

यह भाई बहिनों के त्‍यौहार रक्षाबन्‍धन पर आधारित है जौनपुर के लोग इस त्‍यौहार को किस रूप में मनाते हैं, यह इस नृत्‍य के माध्‍यम से हम आपके सामने प्रस्‍तुत कर रहे हैं

लोक नृत्‍य - रासौ नृत्‍य

वीर भडों की बीर गाथाओं से उत्‍तराखण्‍ड की सांस्‍कृतिक थाती भरी पडी है वीर भडों के बाहुबल व शौर्य की गाथाएं कहानी, दंतकथाओं तथा गढवाली-कुमाऊँनी लोक साहित्‍य के माध्‍यम से लोक जीवन में प्रचारित-प्रसारित है रांसौ नृत्‍य भी इसी परम्‍परा का नृत्‍य है नरू-बिजूला दो वीर भेडों की वीरता का परिचय लोक नृत्‍य में संग्रहित किया गया है यह उत्‍तरकाशी जनपद में मेलों के अवसर पर विशेष रूप से किया जाता है

लोक नृत्‍य - सोरठी

यह नृत्‍य गोरखाली समाज में यह परम्‍परा से यह रीति-रिवाज से हमारे यहाँ दशहरा पर्व पर मनाया जाता है यह पर्व कृष्‍ण भगवान की रासलीला पर यह सोरठी हम सभी गोरखाली समाज मिलकर धूम धाम व खुशी से मनाते हैं

लोक नृत्‍य - पैसंर

यह भी उत्‍तरखण्‍ड एवं उत्‍तरकाशी में विद्यमान है किन्‍तु ये नृत्‍य भी लुप्‍त होने की कगार पर है इसे चार वादी (ढोल बजाने वाले) ढोल-दमाउ, रणसिंगा के सुर तालों पर खुद वादी पार्टी ही नाचती है ये नृत्‍य शादी-पार्टी, त्‍यौहारों, मेलों के अवसर पर किया जाता है

लोक नृत्‍य - बारामासा

इस लोक नृत्‍य बारामास में बारह ऋतुओं का वर्णन, को लोकगीत एवं लोकनृत्‍य के माध्‍यम से प्रस्‍तुत किया जा रहा है, तथा बीच में मादल वाद्ययन्‍त्र पर योग को इस नृत्‍य में सम्‍माहित किया जाता है

लोक नृत्‍य - होली नृत्‍य

होली नृत्‍य उत्‍तराखण्‍ड में गढवाल-कुमाऊँ में ये नृत्‍य होली के अवसर पर किया जाता है बैठी व खडी बोली का रिवाज है उत्‍तराखण्‍ड में भी होली बडे हर्षोल्‍लास के साथ खेली व मनायी जाती है

लोक नृत्‍य - कृषि नृत्‍य

पर्वतीय क्षेत्रों में आज भी परम्‍परागत तरीके से कृषि कार्य सम्‍पन्‍न किये जाते हैं चूंकि क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति एकदम विपरीत है ऐसे में हुडक्‍का (वाद्ययन्‍त्र) लेकर कार्य करने वालों को कार्य के प्रति उमंग व जोश पैदा करने के लिए गायन विद्या का सहारा लेता है इसमें अपने इष्‍ट देवता का आह्वहन करते हुए वीरगाथा गायी जाती है अपने कृषि को सम्‍पन्‍न करने के बाद खाली समय में लगने वाले मेले, उत्‍सवों में सारे क्षेत्र के निवासी भाग लेते हैं तथा अपने उत्‍साह क्षेत्र की सांस्‍कृतिक को प्रदर्शित करते है यहीं सब इस नृत्‍य में प्रस्‍तुत करने का प्रयास किया गया है

लोक नृत्‍य - हल्‍दी नृत्‍य

गढवाल में पारम्‍परिक रूप से होने वाले विवाह का दृश्‍य कन्‍या का मंगल स्‍नान किया जाता है, तथा पार्श्‍वगायन में मांगल गीत गाये जाते है, तथा ढोल, दमांउ, एवं मशक का वादन किया जाता है तथा गांव के लोग एवं हम उम्र के लडके एवं लडकियां पारम्‍परागत रूप से कार्य कर रहे हैं जैसे वन्‍दनवार लगाना हल्‍दी इत्‍यादि को कूटना पण्डित का मन्‍त्रोचारण करना आदि गाँव एवं ईष्‍ट मित्रों द्वारा कन्‍या को बानें देना आदि

मंगल स्‍नान में बाने देने के समय अचानक कन्‍या दुखी

लोक नृत्‍य - लोटा नृत्‍य

इस नृत्‍य में तान्‍दी करते वक्‍त बीच में एक लडकी अपने सिर पर छ: लोटे रखकर पारम्‍परिक गीत पर नृत्‍य करती है तथा नीचे जमीन से रूमाल उठाती है

लोक नृत्‍य - थडया - चौफुला नृत्‍य

गढवाली लोकगीतों की अपनी अमूल्‍य थाती लास्‍य कोटि का ‘थड्या नृत्‍य‘ गीत है बसन्‍त पंचमी से लेकर विषुवत संक्राति तक गांवों में गीत तथा नृत्‍य स्‍त्री–पुरूषों द्वारा किये जाते हैं खासकर इस नृत्‍य में अधिकतर मायके आई हुई लकडियों का हाथ होता है इस नृत्‍य के पीछे मध्‍यकालीन आचार्यों के गीत नृत्‍य अथवा विनोद नृत्‍य की भावना स्‍पष्‍ट मिलती है

चौफला अर्थात चौ यानि की चारों ओर फूला अर्थात चारों ओर की प्रसन्‍नता व्‍यक्‍त करने वाला नृत्‍य को चौफला कहते हैं सर्वप्रथम इस नृत्‍य को पार्वती ने भगवान शिव को प्रसन्‍न करने के लिये किया था यह भारतीय लोक नृत्‍यों का गौरवशाली रूप है इसका कारण यह है कि भारत के विभिन्‍न क्षेत्रों से लोग देवभूमि उत्‍तराखण्‍ड आये और उन्‍होंने चौफला नृत्‍य में अपनी विशेषतायें मिला दी यही कारण है कि गुजरात के गरबा-गरबी, आसाम का बिहू, मणीपुर के रास और मध्‍यकालीन नृत्‍यों में ‘चलिम नृत्‍य’ गीत नृत्‍य का इस नृत्‍य में भली प्रकार निर्वाह हुआ

लोक नृत्‍य - छोलिया नृत्‍य

यह नृत्‍य कुमाऊँ की पारम्‍परिक लोक संस्‍कृति का नृत्‍य है इस नृत्‍य को राजा महाराजाओं के विवाह के समय में छलियाओं के द्वारा किया जाता था यह नृत्‍य प्राचीन समय में जवानों के उत्‍साह को बढाने के लिए भी किया जाता था इस नृत्‍य में छलियाओं के द्वारा ढोल, दमांउ, तूरी व मसकबीन तथा हुडके और झाली की झंनकार में छलियाओं के द्वारा अपने नृत्‍य का प्रदर्शन किया जाता है

लोक नृत्‍य - होली नृत्‍यगीत

बसन्‍त ऋतु में होली का विशेष महत्‍व है उत्‍तराखण्‍ड में होली को होरी कहा जाता है इस नृत्‍यगीत में ब्रजमण्‍डल के ही गीतों का गढवालीकरण / कुमाऊँनीकरण किया हुआ लगता है प्राय: सभी होरी (होली) गीतों में कहीं-कहीं ही गढवाली / कुमाऊँनी शब्‍द मिलते हैं, शेष पदावली ब्रजभाषा या खडी बोली के लगते है

उत्‍तराखण्‍ड में होरी नृत्‍य उल्‍लास और उमंग का विशेष नृत्‍यगीत माना जाता है इस नृत्‍य में चंचलता, चतुरता और चपलता के दर्शन होते हैं

उत्‍तराखण्‍ड में होरी नृत्‍य बडे उत्‍साह और नियमबद्ध तरीके से किया जाता है फिर भी होरी का अपना विशिष्‍ट स्‍थान है, जिसे उत्‍तराखण्‍ड के अधिकांश भागों में बडे कौशल और रूचि के साथ सम्‍पन्‍न किया जाता है

बसन्‍त पंचमी से बसनत के गीत गाये जाते है, जिसके साथ विशिष्‍ट और विभिन्‍न प्रकार के नृत्‍य किये जाते हैं बसन्‍त पंचमी से ही फाग के गीत भी शुरू हो जाते है इन फाग गीतों का बैठी होली के नाम से जाना जाता है बैठी होली का तात्‍पर्य-केवल होरी के गीतों को कमरे के अन्‍दर बैठकर गाना या आँगन के किनारे बैठकर गीतों को गाना

फाल्‍गुन माह की शुक्‍ला सप्‍तमी को होली का प्रथम वा‍स्‍तविक दिन माना जाता है इसी तिथि से होलाष्‍टक शुरू होते हैं

होली का शुभारम्‍भ करने से पूर्व उस गाँव के इष्‍टदेवता, भूमिदेवता, क्षेत्र देवता और गणेश देवता तथा हनुमान की भी पूजा की जाती है, ताकि इस पर्व को मनाने में कोई विघ्‍न न पडे

प्रतिदिन गाँव के होली के नर्तक इस स्‍थान पर जाते है, फूल चढाते हैं, लकडियों का अम्‍बार लगाते जाते हैं जब तक होलिका के प्रतीक उस मेहल की डाली पर पूजा नहीं होती, तब तक कोई खेलने वाले कहीं भी जाकर होली नृत्‍य गीतों को नहीं गा सकते

होली के नृत्‍यकों की टोली बनती है होलिका के स्‍थान से टोली के नर्तक ढोलक, बाँसुरी, ढोल, दमांऊ और आजकल हारमोनियम लेकर पडोस के गाँवों में होली नृत्‍यगीत गाने और नाचने के लिए जाते है नर्तकों के पास प्रह्लाद रूपी सफेद झंडा रहता है, जिसके नीचे बडे आल्‍हाद के साथ गाते और नाचते हुए चलते है

होती नर्तक सफेद रंग का चूडीदार पायजामा, सफेद ही कुर्ता या मिरजाई (अँगरखा) और सफेद रंग की टोपी या पगडी पहन कर हाथों में रूमाल लेकर चलते है प्राय: ढोलक बजाने वाला मुख्‍य गायक होता है, परन्‍तु यह बात हमेशा नहीं होती नृत्‍य गांव के किसी पंचायती चौक में या हर परिवार के आँगन में गोल घेरे में किया जाता है नर्तक कभी-कभी दोनों हाथों में रूमाल लेकर नाचते हैं और कभी केवल एक ही हाथ में रूमाल लेकन नृत्‍य करते हैं नर्तक गोल घेरे में पहले एक कदम गढाता है, और फिर उसी स्‍थान पर घूमकर हाथों के रूमालों या रूमाल को सिर के ऊपर और अपने चारों ओर घुमाता हुआ नाचता है मुख्‍य गायक ढोलक लेकर बीच में रहता है, और नृत्‍य का निर्देशन करता है गीत की उसी कडी को सभी गायक गाते हैं, और गीत के अनुरूप भावों के अनुसार नृत्‍य करते है

होली का नृत्‍य रास्‍ते चलते हुये भी किया जाता है पहाडी सँकरे मार्गों पर नर्तक एक पंक्ति में चलकर गीत गाते हुए उसी तरह नृत्‍य करते है, जिस तरह घेरे में नाचते हैं कहीं-कहीं नर्तकों की दो टोलियाँ बन जाती हैं यह केवल स्‍थान पर निर्भर करता है

होली के नर्तकों को भेंट मिलती है जब होली के गीत और नृत्‍य किसी घर के सामने गाये और नाचे जाते हैं तो वह परिवार अपनी शक्ति के अनुसार नर्तकों को रूपया या भेली देता है जब किसी रिश्‍तेदार के घर पर होली नृत्‍य किया जाता है, या रिश्‍तेदारी के गाँव में होली नृत्‍य करने कोई पार्टी (टोली) जाती है, तो उसे पहले की प्रथा के अनुसार एक बकरा भेंट किया जाता है आजकल लोग बकरे की कीमत दे देते है, कभी-कभी हर परिवार के घर के आगे नाचने के बजाय गाँव के सम्मिलित एवं पंचायती चौक में होली नृत्‍य नाचा जाता है, ऐसी स्थिति में नाचने वालों को गाँव से बकरा, भेली या उनके मूल्‍य के अनुसार रूपया देने की प्रथा है

लोक नृत्‍य - हुडकिया बोल

पर्वतीय क्षेत्र में किसान कृषि कार्यों को शुरू करने से पूर्व भूमि देवता व अपनी ईष्‍ट देवों से भरपूर अन्‍न की पैदावार होने की प्रार्थना करना है घर परिवार व गांव के स्‍त्री-पुरूष मिलकर गीत व नृत्‍य के माध्‍यम धान की रोपाई का श्रम साध्‍य कार्य हसीं-खुशी पूर्ण कर लेते हैं चूंकि यहाँ पर अभी भी परम्‍परागत रूप से हल-बैल व कृषि यन्‍त्रों का उपयोग ही कृषि कार्यों में होता है

लोक नृत्‍य - मेला नृत्‍य गीत

गढवाल, कुमाऊँ, जौनसार यानि कि उत्‍तराखण्‍ड में मेलों का अपना एक अलग ही आकर्षण है, बैशाख, बसंतपंचमी, माघ-मेला जैसे कई पारम्‍परिक मेले हैं इन मेलों में लोग दूर-दूर से झुण्‍ड बनाकर गीत गाते व नृत्‍य करते हुए आते है, एक दूसरे से मिलते हैं व अपना सुख-दु:ख बांटते हैं वही दूसरी ओर मेलों का आकर्षण युवक-युवतियों के प्रेमालाप वाले नृत्‍य गीत भी होते हैं युवक प्राय: दल बनाकर गीत गाते हैं जिनका उत्‍तर युवतियाँ भी झुण्ड बनाकर गाकर-नाचकर देती है

लोक नृत्‍य - केदार नृत्‍य

नवसृजित राज्‍य उत्‍तराखण्‍ड का पौराणिक नाम केदारखण्‍ड भी है लोकमाटी के कण-कण में समाहित शिव शंकर-मां पार्वती के महात्‍म्‍य के कारण इस भू-भाग को देव भूमि के रूप में पूजा जाता है शिव की उत्‍पत्ति लोक कलाकारवादी उत्‍तराखण्‍ड भी लोक संस्‍कृति की अमूल्‍य धरोहर है, शिव-पार्वती की इस तपोभूमि में केदार नृत्‍य का अपना विशेष महत्‍व है

केदारनाथ के कपाट खुलने के दौरान ऊखीमठ से गुप्‍तकाशी गौरीकुण्‍ड, रामवाण होते हुए शिव-पार्वती की डोली-पालकी यात्रा निकाली जाती है, इसी दृष्‍टान्‍त को केदार नृत्‍य में पिरोया गया है

लोक नृत्‍य - बद्दी-बद्दीण नृत्‍य

उत्‍तराखण्‍ड की सांस्‍कृतिक धरोहर के मूल सूत्रधार वादी (बेडा) नृत्‍य, उत्‍तराखण्‍ड में ये नृत्‍य एक विशेष जाति के लोग करते हैं शादी-विवाह तीज-त्‍यौहार के अवसरों पर ये नृत्‍य किया जाता है इसमें वादी गले में ढोलक डालकर बजाता है व गाता है तथा वादिण उसके बोल पर नृत्‍य करती है कभी-कभी ये लोग पौराणिक कथाओं, वीरगाथाओं आदि का अपने गीतों के द्वारा बखान करते है

लोक नृत्‍य - झोडा-चांचरी नृत्‍य

चांचरी की उत्‍पत्ति ‘चर्चरी’ शब्‍द से हुई है, जिसका अर्थ है नृत्‍य एवं ताल समन्वित गीत यह उत्‍तराखण्‍ड के कुमाऊँ अंचल के नृत्‍य गीतों की एक विशिष्‍ट शैली है मेले, उत्‍सवों, पर्वों एवं त्‍यौहारों के अवसर पर यह गीत गाये जाते हैं नृत्‍य गीत होने के कारण चांचरी में गति और पराक्रम का विशेष महत्‍व होता है वृत्‍ताकार परिकल्‍पना कर यह नृत्‍यगीत प्रदर्शित किये जाते हैं इन गीतों को स्‍त्री व पुरूष पृथक-पृथक रूप से गाकर नृत्‍य करते हैं इन नृत्‍य गीतों में विषय वस्‍तु में विविधता पायी जाती है जीजा-साली, देवर-भाभी, प्रेमी-प्रेमिका आदि से सम्‍बन्धित चांचरियों में सम्‍वादात्‍मकता मिलती है चांचरी श्रम परिहार मनोरंजन और आशु कवि की अभिव्‍यक्ति की मधुर गुंजार है, जो श्रृंगार प्रधान है

लोक नृत्‍य - बुक्‍साडी नृत्‍य

बुक्‍सा जनजाति के लोग खाली समय में मनोरंजन के लिए जो विशेष सांस्‍कृतिक कार्यक्रम करते है, उसे बुक्‍साडी नृत्‍य कहते हैं जिसमें एक पुरूष महिला के वेश-भूषा में मृदंग पर नाचते हैं इस गीत को गाने वाले समूह में दो पक्ष में बैठकर गाते हैं यह गीत राग प्रधान होता है

गीत
ता ता थैया थैया-2
अरी भई सांझ भये-2
भोर हुये उड जाये

लोक नृत्‍य - लास्‍या नृत्‍य

यह नृत्‍य समस्‍त भोटिया जनजाति अपने अनाज जैसे राजमा, आलू, चौलाइ, मंडुवा आदि को सबसे पहले अपने देवी-देवताअें को भोग चढाते हैं इसी अवसर पर समस्‍त ग्रामवासी इकट्ठा होकर ढोल-दमांऊ ढोल-दमांऊ व भंकोरे के साथ यह पारम्‍परिक लास्‍या नृत्‍य करते है तथा अपने देवी-देवतताओं से मन्‍नत मांगते है कि हर साल हमारे यहां इसी प्रकार से अनाज पैदा हो भोटिया जनजाति का अपना अलग पहनाव होता है सोने चांदी के भारी गहने होते है जो आपको इस नृत्‍य में देखने को मिलेगा

लोक नृत्‍य - संरग

यह प्राय: अब लुप्‍त ही हो गया है ये नृत्‍य मात्र 02 (दो) व्‍यक्ति ही दर्शात हैं जिन्‍हें संगीत में बांधने के साथ-साथ दो वादी (ढोल वादक) नगाडा, दमांउ, रणसिंगा इत्‍यादि तालों व सुरों के संगम में नाचा जाता है यदि कहा जाये तो भारतीय कथक नृत्‍य से मिल सकता है किन्‍तु यह राग सुरों में नहीं बंध पाया, यह एक इतिहास भी है, मनोरंजन भी हैं इसे प्रतियोगिता में भी दर्शाया जाता है

लोक नृत्‍य - खुकुरी नृत्‍य

उत्‍तराखण्‍ड राज्‍य के विभिन्‍न समुदायों में से गोर्खा समुदाय भी एक महत्‍वपूर्ण समुदाय है इस समुदाय के लोग बडा दशंई (दशहरा) बहुत ही उत्‍साह और धूमधाम से मनाते हैं नवदुर्गा देवियों की पूजा और अर्चना की जाती है इनमें सब से महत्‍वपूर्ण महाकाली माता को भैंसे की बलि देकर पूजा-अर्चना के साथ खुकुरी नृत्‍य और सांस्‍कृतिक कार्यक्रम किया जाता है क्‍योंकि यह कार्यक्रम रात्री के समय किया जाता है इसीलिये उस रात्रि को गार्खा समुदाय कालरात्रि के नाम से पुकारते हैं भैंसे को राक्षसों का वाहन और उनका रूप मानकर संहार करके संसार को भयमुक्‍त करने का संकल्‍प लेते हैं गोरखाली परम्‍परा में बडा दशंई के दिन अपनों से बडे बुजुर्गों के घर जाकर टीका और जमरा (जौ का पौधा जो कानों में लगाते हैं) लगा कर उनसे आर्शीवाद लेने की प्रथा है

लोक नृत्‍य - मरूनी नृत्‍य

मारूनी नृत्‍य किसी भी पर्व, त्‍यौहार या सत्‍यनारायण कथा के पश्‍चात या शादी-ब्‍याह इत्‍यादि समारोह में मनोरंजन के लिए किया जाने वाला नृत्‍य है इस नृत्‍य के लिये मारूनी महिलायें मखमल की चोली और बुट्टेदार फरिया और विभिन्‍न गहनों को पहन कर करती है, मारूनी समूह में चार या छ: महिलायें और वादक बजाने वाले पुरूष होते हैं

लोक नृत्‍य - डोऊडा नृत्‍य

डोऊडा नृत्‍य में साटी व पाशी दो पक्ष होते हैं जो एक-दूसरे को अपना शत्रु मानते हैं इसमें विशेष प्रकार की ड्रैस पहनी जाती है, जो कि अपने आप में काफी विशाल होती है इसमें एक विशाल धनुष बाण का इस्‍तेमाल किया जाता है इसमें केवल पुरूष भाग लेते हैं, इसको बिस्‍सू त्‍यौहार में खेला जाता है

लोक नृत्‍य - जुडडा नृत्‍य

बताते हैं कि जब सिरमोर के राजा के ऊपर मुगल साम्राज्‍य ने आक्रमण किया था उस समय जौनसार बावर के वीर पुरूष नन्‍तराम नेगी ने मुगल साम्राज्‍य के सेनापति की गर्दन धड से अलग कर दी थी जिससे मुगल को अपने कदम पीछे हटाने पडे जिससे कि सिरमोर राजा जीत गये इस वीर पुरूष नन्‍तराम नेगी के विजय के उपलक्ष में जुड्डा नृत्‍य तलवारों व ढालों द्वारा किया जाता है

लोक नृत्‍य - गोरिल नृत्‍य

यह नृत्‍य मण्‍डाण का नृत्‍य है, ढोल, दमौऊ, हुडका, थाली, शंख, भंकर, धूप, दीप एवं फूल को अर्पित कर बांजीगरों द्वारा धुनियाल बजायी जाती है तत्‍पश्‍चात देवी-देवताओं के आवहन हेतु अग्नि प्रज्‍वलन, स्‍थान शुद्धि, दीप प्रज्‍वलन एवं मंत्रोचारण के साथ पुन: बाजीगरों द्वारा ईष्‍ट देवता गोरीया (गोरील) को न्‍याय की पुकार, कल्‍ह–क्‍लेश, दुख-दरिद्र के निवारण हेतु करूणा एवं वीर भाव के जागर गाये जाते हैं नृत्‍य में व्‍यक्ति विशेष पर राजा गोरीया के पाश्‍वा वीर अवतरित होते हैं और बोल वचन देते है

प्रस्‍तुत नृत्‍य में नगुवा और संमणी मसाण के मर्दन पर आधारित है लोक जागरों के आधार पर माना जाता है कि नैनीताल जिले के नौकुच्‍चया ताल में नगुवां नाम का एक राक्षश (मसाण, यक्ष) रहता था इसके अत्‍याचार से क्षेत्रवासी अत्‍यन्‍त दुखी थे क्षेत्रवासियों ने तत्‍कालीन शासक, चम्‍पावत हाट राजा गोरीया से उसके अत्‍याचार से मुक्‍त होने के लिए पुकार लगाई राजा गोरिया द्वारा काठ की घोडीयों में प्राण प्रतिष्‍ठा कर नौकुच्‍या ताल के लिए प्रस्‍थान किया नगुवा और मसाण का मर्दन किया और क्षेत्रवासियों को अतयाचार से मुक्‍त कराया यक्ष होने के कारण उन्‍हें अपने साथ-साथ पूजा का भागीदार व क्षेत्र के लिए अच्‍छे होने को कहा गया क्षेत्रवासियों द्वारा गोरीया कलुवा की पूजा के साथ-साथ नगुवा व समणी की पूजा की जाती है राजा गोरिया के साथ-साथ भाई कलुवा दिवान, निसंगू महर और उजला रैथाण भी होते है इसे गोरील की घोडियोत भी कहा जाता है इसके साथ-साथ गोरील की वंशावली को सगुनिया व नारद के अभिनय के साथ प्रस्‍तुत किया गया है

लोक संगीत - हिमाद्रिनाद

रंगमण्‍डल संस्‍कृति विभाग, उत्‍तराखण्‍ड के 40 कलाकारों द्वारा उत्‍तराखण्‍ड के पारम्‍परिक वाद्य यन्‍त्रों का वादन कार्यक्रम जिसमें ढोल, दमांऊ, भंकोर, मसकबीन, रणसिंगा, तुरतुरी, बांसुरी, हुडका, डौर, थाली, नगाडा, मजीरा तथा करताल आदि पारम्‍परिक वाद्य यन्‍त्रों का वादन कार्यक्रम प्रस्‍तुत किया जायेगा

लोक संगीत - मांगल

मां‍गलिक अवसरों पर गाये जाने वाले मांगल नृत्‍य गीत होते हैं उत्‍तराखण्‍ड में कोई भी शुभ कार्य करने से पूर्व सभी देवी-देवताओं का आहवन किया जाता है

लोक संगीत - पाण्‍डवाडी गायने

यह लोकगीतों की एक ऐसी गायन शैली है जिसमें लोक गायक/गायिका लोक गाथाओं या महाभारत की गाथा को पाण्‍डवाणी गायन शैली में प्रस्‍तुत करते हैं

लोक संगीत - सांध्‍य गीत

उत्‍तराखण्‍ड का कुमाऊँ अंचल जो अपने नैसर्गिक सौन्‍दर्य के लिए विश्‍वविख्‍यात है, वहीं यहां के निवासियों ने अपनी सांस्‍कृतिक परम्‍पराओं को धरोहर की तरह सहेज कर रखा है, विभिन्‍न सुवसरों पर यहां संस्‍कार, गीत गाये जाने की परम्‍परा है इसी परम्‍परा का एक अंश ‘’सांध्‍य गीत’’ के रूप में हम आपके सामने प्रस्‍तुत कर रहे हैं

लोक संगीत - जागर

गढवाल के सभी क्षेत्रों के ग्रामीण अंचलों में नरसिंह और भैरो का अधिकतर प्रादुरभाव हुआ, क्‍योंकि ये भगवान शिव की जन्‍म स्‍थली व कर्म स्‍थली नरसिंह भगवान के बारे में सभी को मालूम है, कि भक्‍त प्रह्लाद के पिता हरण्‍यकश्‍यप को मारकर धर्म की स्‍थापना हेतु भगवान विष्‍णु ने नरसिंह रूप धारण किया दक्ष प्रजापति ने जन कनखल में यज्ञ किया था तो सती ने अपने पति का अपमान देख कर यज्ञ में आहूति दे दी थी भगवान शिव में दक्ष प्रजापति का मानमर्दन व वद्ध कराने के लिये वीरभद्र भैरों, चण्‍ड प्रचण्‍ड भेरों आदि गणों को उत्‍पन्‍न किया तभी से ये गढवाल शिव का कैलाश के नाम से जाना जाता है इसलिए इसे जागर के रूप में गाया जाता है

लोक संगीत - झीं-झीं नृत्‍य एवं गीत

झीं-झीं का अर्थ लडकी होती है, जो गरीब और असहाय है उसके भरण पोषण हेतु जनजाति महिलायें समूह में एकत्रित होकर परम्‍परागत वेश-भूषा में सिर पर मट्की जिसके चारों ओर सुराग होते हैं उसके अन्‍दर मिट्टी के दिये जलाकर घर-घर जाकर गाती और नाचती है उस असहाय लडकी के लिये मक्‍का, चावल और वस्‍त्र आदि मांगते है यह कार्यक्रम रात में किया जाता है इस आयोजन का समय विशेषकर भादों से लेकर कार्तिक महीने तक किया जाता है

झीं-झीं गीत
झीं-झीं को पेट पिरानों गला एक चमार दे ................
मेरीझीं-झीं चली प्रदेश गजा लहगा दे .................
मेरे झीं-झीं को नाब मनकियारे मनझुरई न ले
झीं-झीं को पेट पिरानों गला एक चामर दे .....................

लोक संगीत - राधाखण्‍डी रास

श्री शिवचरण वेडा एवं उनकी धर्मपत्‍नी श्रीमती देवई ग्राम दोगी, घनसाली, टिहरी गढवाल के उत्‍तराखण्‍ड में इस राधाखण्‍डी नृत्‍य / गीत के एक मात्र कलाकार हैं, जो अभी तक इस नृत्‍य को विरासत के रूप में संजोकर रखें हुए हैं जिस समय में भगवान कृष्‍ण ने अपनी कोमल उंगली से गोवर्द्धन पर्वत उठाया था, उस समय इन्‍द्र को गुस्‍सा आया (इन्‍द्र देव को कृष्‍ण की करतूत एवं शक्ति रास नहीं आई) और गोकुल (कुँजमा) ग्‍वाल, बाल, गुजरानी, हस्‍त की सूँड के बराबर बारिश लगी तब भगवान ग्‍वाल कृष्‍ण ने गोवर्द्धन पर्वत उठाया जब इन्‍द्र भगवान की पराजय हो गयी उसके बाद इन्‍द्र देव ने अपने अप्‍सराओं को गोकुल में भेजा और ‘’भगवान कृष्‍ण के स्‍वागत में राधाखण्‍डी रास लीला’’ का अयोजन करवाया था

लोक संगीत - शिव वन्‍दना संध्‍या गीत

उत्‍तराखण्‍ड की देव भूमि का हिमालय के साथ अटूट सम्‍बन्‍ध रहा है हिमालय को देवों के देव शिव का निवास स्‍थान माना जाता है शिव व ताण्‍डव नृत्‍य एक दूसरे के पर्याय माने गये है शिव का डमरू विश्‍तारित होकर हुडके के रूप में सामने आता है, जो कि उत्‍तराखण्‍ड की संस्‍कृति का एक आवश्‍यक लोक वाद्य यंत्र है इस वन्‍दना में शिव के रूपों का वर्णन करते हुये समस्‍त विश्‍व के लोग कल्‍याण की कामना की जाती है

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लोकनृत्‍य, लोक वाद्यों के सफल वादन के द्वारा सम्‍पन्‍न किये जाते हैं लोक वाद्यकार, विभिन्‍न प्रकार के लोक नृत्‍यों का नर्तन करवाने वाले बाजों के वादन में सिद्धि प्राप्‍त किये होते हैं लोक संगीत इन्‍हीं कुशल वाद्यकारों की वादन-कला की लोक ध्‍वनियों में सुरक्षित है गढवाल की लोक धुनें परम्‍परावादी है शास्‍त्रीय संगीत की तरह लोक धुनों (ध्‍वनियों) का जो स्‍वरूप पहले निर्धारित हुआ हैं, उसका निर्वहन आज भी लोक वाद्यकारों के द्वारा किया जाता है लोक वाद्यों की इसमें सबसे मुख्‍य भूमिका होती है

गढवाली लोक संगीत लय प्रधान है गढवाल कई स्‍वरों में गाता है और वे स्‍वर लोक नृत्‍यों की त्‍वरित भावात्‍मक शैलियों से उदभूत होते हैं संस्‍कारों के गीत, व्रत-त्‍यौहारों के गीत और ऋतु सम्‍बन्‍धी गीत स्‍वर प्रधान हैं शेष सभी गीत वाद्य-यंत्रों के माध्‍यम से गाये जाते हैं इन्‍हीं नृत्‍यगीतों पर नृत्‍य होते हैं

  • डौंर-थाली

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    डमरू गढवाल का दूसरा प्रमुख वाद्य-यंत्र है डौंर (डमरू) शिव का वाध्‍य है वादक ढोल की तरह डमरू को लाकुड (छोटी लाकुड) और हाथ से गजाता है घुटनों के बीच डमरू का रख की डौंरिया (डौंर बजाने वाला) दाहिने हाथ से लाकुड से डौंर पर शब्‍द करता है और बायें हाथ से शब्‍दोत्‍पत्ति में अँगुजियों का संचार पर आवश्‍यक देवताओं की तालों की उत्‍पत्ति करता है काँसे की थाली बजाने वाला बांये हाथ को ऊपर उठाकर बायें अँगूठे पर थाली को टिकाता है और दाहिने हाथ से लाकुड थाली पर मारता हैं, जिससे डौंर के शब्‍दों के अनुसार शब्‍द निकलते हैं देवताओं का नर्तन होता है

    डौंर अथवा डँवर वास्‍तव में डमरू का विकृत रूप है प्रागैतिहासिक दृष्टि से यदि देखें तो कैलाशगिरी में महादेव जी द्वारा चौदह बार बजाये जाने पर जिस डमरू से चौदह माहेश्‍वर सूत्रों का उदभव हुआ था, उसका मौलिक रूप निस्‍सन्‍देह यही डमरू रहा होगा कालान्‍तर में शिव जी ने इस डमरू की थाती शिवजन्‍ती ढोली गुरू कालिदास को सौंपी थी अभिप्राय यह है कि डौंर का उपयोग अनिवार्य समझा जाता है नाग शिव जी के आभूषण जो है चित्रकारों ने शिव डमरू की जो डमरू की प्रस्‍येक गूँज आध्‍यात्मिकता से गर्भित है तथा जिस गूँज ने देव-भाषा संस्‍कृत को व्‍याकरण प्रदान किया, उसका स्‍वरूप अपनी पवित्र गरिमा से गिर कर मदारी की डुगडुगी कदापि नहीं ले सकता डरू के ऐसे चित्रांकन में हमारी पौराणिक सांस्‍कृतिक परम्‍परा का निर्वाह नहीं किया गया मालूम होता है

  • हुडका या हुडकी

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    चर्म-वाद्यों में हुडकी अपना एक विशेष स्‍थान रखती है कुमाऊँ के कत्‍यूरी राजा दुलाशाह के दरबार में लगभग छठी शताब्‍दी के पूर्वार्द्ध में बिजुला नैक द्वारा हुडकी (तिकूट की धौंस) बजाई जाने का कत्‍यूरियों की गाथा में उल्‍लेख मिलता है नैक (नायक) उन दिनों हुडक्‍या को ही कहा जाता था बिजुला नैक और उसकी माँ छमना पातर (नर्तकी) नित्‍य–प्रति दुलाशाह के खैरागढ की मेलचौरी में कार्यक्रम प्रस्‍तुत किया करते थे हुडक्‍यों की वंश-परम्‍परा आज भी गढवाल और कुमाऊँ में कहीं-कहीं छोटे-छोटे भ्रमणशील कबीलों के रूप में विद्यमान है कुमाऊँ की तुलना में गढवाल में हुडक्‍या उपजाति थोडी रह गई है, परन्‍तु हुडकी का उपयोग दोनों प्रदेशों में समान है जौनसार तथा हिमाचल प्रदेश में हुडकी का प्रचलन प्राय: नहीं के बराबर है हुडकी का उपयोग प्राय: जागर और अन्‍य लोक गीतों की अवतारणा में ही होता है

    खिमारी की सूखी लकडी को निहानी तथा शान (खराद) की सहायता से चुनारा लोग हुडकी की लकडी को शान पर चढा कर बडी सुन्‍दरता के साथ उसको आयताकार चार के अंक की शक्‍ल में ढालता है, और इस प्रकार हुडकी का फ्रेम तैयार हो जाता है हुडकी की दीवाल सवा इंच मोटी होती है इसकी लम्‍बाई 1 फुट 3 इंच के लगभग होती है, तथा दोनों मुखों पर चढाई गई पुडियों का व्‍यास 6 या 7 इंच से अधिक नहीं होता हुडकी की कमरी (कटि-प्रदेश) की परिधि 6-10 इंच के बराबर होती है हुडकी की दोनों पुडियों को बकरी के आमाशय की भीतरी खाल से बनाया जाता है, और इन नाजुक पुडियों को हुडकी पर गाँछों के मध्‍य में सूत की डोरी पिरोकर चढाया जाता है पुडी की कुण्‍डली कच्‍ची चमलाई की छडी से बनाई जाती है तथा इस कुण्‍डली पर केवल कुण्‍डली-रन्‍ध्र किये जाते हैं इन्‍हीं कुण्‍डली कच्‍ची चमलाई की छडी से बनाई जाती है और बायें हाथ की पकड उसकी कमरी पर होती है तथा इसी हाथ की हरकत से कन्‍दोटी के द्वारा डोरी पर दबाव डाला जाता है तथा कन्‍दोटी पर गुँथे घुँघरूओं से लयात्‍मक झंकार उत्‍पन्‍न की जाती है

  • भँकोरा

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    ताँबे का लम्‍बा एक इंच गोलाई से तीन इंच गोलाई तक बना हुआ वाद्य-यंत्र, जिसकी लम्‍बाई 36 इंच होती है केवल पर्वतीय क्षेत्र का वाद्य-यंत्र है इससे मीठे स्‍वर निकलते हैं केवल देवताओं के पूजन और नर्तन में (नौवत या धुँयाल के अवसर पर) केवल सवर्णों के द्वारा ही यह वाद्य-यंत्र बजाया जाता है

  • रणसिंग

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    हमारे प्राचीन ग्रंथों विशेष रूप से पुराणों में रणसिंह बजाने का उल्‍लेख कई बार आता है जिसका उपयोग देवतागण असुरों पर हुई विजय के अवसर पर हर्षोल्‍लास व्‍यक्‍त करने के लिए किया करते थे पौराणिक ग्रंथों के चित्रकार ने तत्‍कालीन रणसिंग का जो चित्र बनाया है वही वर्तमान में नरसिंग के रूप में हमें दिखाई पडता है तांबे की धातु से बना यह वाद्य आज भी अपने पौराणिक काल के स्‍वरूप में विद्यमान है यह वीर रस को उत्‍पन्‍न करने वाला वाद्य है प्रत्‍येक मांगलिक कार्य, छोलिया नृत्‍य व विजयोल्‍लास के क्षणों में इसे बजाया जाता है शादी ब्‍याह के अवसर पर इसे ढोल-नगाडे के साथ बजाया जाता है खेद है कि इतना प्राचीन व महत्‍वपूर्ण वाद्य होने के बावजूद भी नई पीढी के वादक इसे बजाने में कोई भी रूचि नहीं रख रहे हैं फलस्‍वरूप कुछ पुराने व वृद्ध कलाकार ही इसके वादक रह गए हैं इसे बजाने के लिए मुंह के अन्‍दर पर्याप्‍त मात्रा में वायु के साथ-साथ अनुभव एवं श्‍वांस पर नियंत्रण की आवश्‍यकता होती है पूर्वकाल में जब दो राजाओं के बीच स्‍थल युद्ध होता था, तब इसका वादन वीरों का उत्‍साह बढाने के लिये किया जाता था वर्तमान में इसका उपयोग छोलिया नृत्‍य एवं शादी-ब्‍याह के मंगल अवसरों तक ही सीमित रह गया है

  • ढोल-दमाऊँ

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    ढोल-दमाऊँ (दमामा) साथ-साथ बजते हैं ढोल जब बजाया जाता है, तब दमाऊँ उसके साथ अवश्‍य बजाया जाता है ढोली गले में ढोल जनेऊ की तरह डालकर दाहिने हाथ से लाकुड के सहारे ढोल पर शब्‍द करता है बायें हाथ से उँगलियों द्वारा शब्‍दोत्‍पत्ति करता हुआ आकर्षक बाजा बजाता है दमामा नगाडे का छोटा रूप होता है बाजगीर माला की तरह दमाऊँ को गले में डालकर दोनों हाथों में लाकुड लेकर नगाडे की तरह बजाता है ढोल के शब्‍दों के साथ दमाऊँ के स्‍वर बडे आकर्षक होते हैं दोनों के सम्मिलित स्‍वर ही वाद्य को जान देते हैं ढोल-दमाऊँ हिमाचल प्रदेश का प्रमुख वाद्य-यंत्र है ढोल-दमाऊँ बजाने वाले बडे मँजे हुए वाद्यकार (बाजगीर) होते हैं ढोलसागर ग्रन्‍थ के आधार पर ढोल-दमामा बजाया जाता है ढोलसागर, जो अब मिलता है, उसमें संस्‍कृत, गढवाली और हिन्‍दी के शब्‍द साथ-साथ मिले हुए पाये जाते हैं

    ढोलसागर शंकर वेदान्‍त अर्थात शब्‍दसागर का छोटा ग्रन्‍थ है नाथ-पंथ का इस ग्रन्‍थ पर पर्याप्‍त प्रभाव है ढोल की प्राचीनता के विषय में कहा गया है कि सर्वप्रथम इन्‍द्र का ऊदामदास ढोली था, जिसका अमृत का ढोल था द्वापर में मान्‍धाता राजा का बामदास ढोली था, जिसका गगन को ढोल अविकारं यम शुन्‍यं शब्‍दम था त्रेता में महेन्‍द्र नामक राजा का विदिपालदास ढोली था, जिसका काष्‍ठ को ढोल अविकारं तं शून्‍यं शब्‍दम था एवं कलियुग में राजा विक्रमाजीत का भड वानदास ढोली था, जिसका अंसतम को ढोल वस्‍तर को शब्‍दम था

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  • Aipan

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    Aipan is one of the traditional art (painting form) of Kumaon. It has great social, cultural and religious significance.

    In Uttarakhand, aipan are popularly drawn at places of worship, houses, and main entry doors of house and in front courtyard. Some of these artistic creations have great religious importance and these are drawn during particular religious ceremonies or auspicious occasions such as marriages, Threading ceremony, naming ceremony etc. to perform rituals while others are for particular God / Goddess and a few for aesthetic look.