डौंर-थाली
-
डमरू गढवाल का दूसरा प्रमुख वाद्य-यंत्र है डौंर (डमरू) शिव का वाध्य है वादक ढोल की तरह डमरू को लाकुड (छोटी लाकुड) और हाथ से गजाता है घुटनों के बीच डमरू का रख की डौंरिया (डौंर बजाने वाला) दाहिने हाथ से लाकुड से डौंर पर शब्द करता है और बायें हाथ से शब्दोत्पत्ति में अँगुजियों का संचार पर आवश्यक देवताओं की तालों की उत्पत्ति करता है काँसे की थाली बजाने वाला बांये हाथ को ऊपर उठाकर बायें अँगूठे पर थाली को टिकाता है और दाहिने हाथ से लाकुड थाली पर मारता हैं, जिससे डौंर के शब्दों के अनुसार शब्द निकलते हैं देवताओं का नर्तन होता है
डौंर अथवा डँवर वास्तव में डमरू का विकृत रूप है प्रागैतिहासिक दृष्टि से यदि देखें तो कैलाशगिरी में महादेव जी द्वारा चौदह बार बजाये जाने पर जिस डमरू से चौदह माहेश्वर सूत्रों का उदभव हुआ था, उसका मौलिक रूप निस्सन्देह यही डमरू रहा होगा कालान्तर में शिव जी ने इस डमरू की थाती शिवजन्ती ढोली गुरू कालिदास को सौंपी थी अभिप्राय यह है कि डौंर का उपयोग अनिवार्य समझा जाता है नाग शिव जी के आभूषण जो है चित्रकारों ने शिव डमरू की जो डमरू की प्रस्येक गूँज आध्यात्मिकता से गर्भित है तथा जिस गूँज ने देव-भाषा संस्कृत को व्याकरण प्रदान किया, उसका स्वरूप अपनी पवित्र गरिमा से गिर कर मदारी की डुगडुगी कदापि नहीं ले सकता डरू के ऐसे चित्रांकन में हमारी पौराणिक सांस्कृतिक परम्परा का निर्वाह नहीं किया गया मालूम होता है
लोक नृत्य
- बारामासा (योग के साथ)
- बद्दी-बद्दीण नृत्य
- बग्डवाल नृत्य
- बसन्त नृत्य
- बुक्साडी नृत्य
- चांचरी
- छपेली (कुमाऊँनी नृत्य)
- छोलिया नृत्य
- दीपक नृत्य
- डोऊडा नृत्य
- दुवडी त्यौहार
- घस्यारी नृत्य (कुमाऊँनी नृत्य)
- गोरिल नृत्य
- हारूल (जौनसारी नृत्य)
- हल्दी नृत्य
- होली नृत्य
- होली नृत्यगीत
- हुडका-छुडका नृत्य
- हुडकिया बोल
- झोडा-चांचरी नृत्य
- झुमैला नृत्य
- जुडडा नृत्य
- केदार नृत्य
- खुकुरी नृत्य
- कृषि नृत्य
- लास्या नृत्य
- लोटा नृत्य
- मेला नृत्य गीत
- मरूनी नृत्य
- नन्दा देवी राजजात (गढवाली नृत्य)
- नन्दा-सुनन्दा
- नाटी
- पाण्डव नृत्य
- पैसंर
- पौण नृत्य
- रासौ नृत्य
- रवाई नृत्य
- संरग
- सोरठी
- सयना लोक नृत्य
- तान्दी नृत्य
- थडया - चौफुला नृत्य
- वीर नृत्य